इस Antarvasna Kahani को पढ़कर आपको समझ आ जायेगा यदि आदमी का दिल किसी कमसिन कली पर आ जाये तो वो उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसकी ले ना ले…
Antarvasna Kahani शुरू होती है सविता से…
एडवोकेट राजे सिंह फौजदारी मामलों में गिने-चुने वकीलों में से थे।
वे जाड़ों के दिन थे एक सुबह, राजे सिंह अपने घर के लाॅन में बैठे मुवक्किलों की फरियाद सुन रहे थे।
तभी एक खूबसूरत युवती उनके पास आयी
और उन्हें नमस्कार करके बोली, ‘‘वकील साहब! मेरा नाम सविता सिंह है।
मैं बाकर गंज मोहल्ले में रहती हूं।
मैं बहुत बड़ी उम्मीद लेकर आपके पास आई हूं।
आशा है, आप मुझे निराश नहीं करेंगे।’’
युवती जितनी खूबसूरत थी, उसकी आवाज़ में भी उतनी ही कशिश थी।
एडवोकेट राजे सिंह युवती की ‘फरियाद’ सुनने में तल्लीन हो गये।
जिस मोहल्ले में सविता रहती थी, उसी मोहल्ले में प्रेम कुमार चैबे भी रहता था।
20 वर्षीय प्रेम एक काॅलेज मंे पढ़ता था तथा विज्ञान का छात्रा था।
वह एक किराये के मकान मंे रहता था।
प्रेम मजबूत शरीर तथा आकर्षक डील-डौल का सजीला जवान था।
वह एक दिल-फंेक युवक था वह पढ़ता कम था,
लेकिन शहर की नई-नई तितलियों को अपने जाल मंे फंसाने
और उनसे प्यार करने के चक्कर में अधिकांश समय बिताता था।
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उसने अब तक 50 प्रेमिकायें बना ली थीं जो उस पर हमेशा मर-मिटने के लिये तैयार रहती थीं।
उसकी 51वीं नम्बर की माशुका बनने जा रही थी, सविता।
कमसिन सविता एक अल्हड़ हसीना थी।
अभी वह एक ऐसी कली थी, जो फून बन कर खिलने जा रही थी।
उसने भी दूसरी लड़कियों की तरह एक राजकुमार का सपना देखना शुरू कर दिया था।
लेकिन उस दिन प्रेम से मिलकर उसे ऐसा लगा, जैसे वही उसके सपनों का राजकुमार है।
वह उससे मन-ही-मन प्यार करने लगी।
प्रेम एक भौंरा ही था।
नई कली का पराग चूसने में उसे अद्भुत आनंद मिलता था।
जब उसने सविता को देखा, तो उसकी अल्हड़ जवानी का रस निचोड़ने का ख्वाब देखने लगा।
उसी दिन से उसने सविता पर डोरे डालने शुरू कर दिये।
वह उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा।
एक दिन मौका पाकर प्रेम ने अपने दिल की बात उससे कह डाली,
‘‘सविता! मैं तुमसे प्यार करता हूं। जब से तुम्हें देखा है, मेरा दिल संभले नहीं संभलता है।
हर पल, हर लम्हा बस तुम ही तुम….मेरी सांसो में, मेरे ख्वाबों की मलिका हो तुम।
अगर तुमने मेरे प्यार को कबूल नहीं किया, तो आत्महत्या कर लूंगा।’’
प्रेम ने एकाएक सविता को अपनी बाहों में भरकर चूम लिया।
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सविता हल्के-से कसमसा कर चैंकी, फिर उसकी बड़ी-बड़ी आंखों मंे तैरते लाल-लाल डोरे देखकर विभोर-सी हो गई।
उस दिन बस, इतना-सा हुआ था।
दोनों ने एक-दूजे के प्यार को कबूल कर लिया था और अपने-अपने घर लौट गये थे।
इस घटना के बाद सविता रात-दिन प्रेम के स्पर्श सुख की आनंदानुभूति लेने लगी।
वहीं प्रेम उत्साहित होकर सविता की जवानी का रस निचोड़ने के लिये उपयुक्त मौके की तलाश में रहने लगा।
संयोग से एक दिन उसे यह मौका मिल भी गया।
उस दिन दोनों गंगा के किनारे टहल रहे थे।
सांझ अपनी बांहें फैला रही था।
प्रेम ने दूर-दूर तक देखा, चारों तरफ सुनसान व अंधेरा पसरा था।
सविता से बातें करते-करते अचानक प्रेम ने उसे अपनी बाहों मंे भींच लिया
और उसके रसीले अधरों का रस निचोड़ते हुए बोला, ‘‘बस, तुम मुझे दो घूंट पिला दो….जानम!’’
‘‘नहीं प्रेम, यह ठीक नहीं है।
तुम स्वयं पर काबू रखने की कोशिश करो।
अगर किसी ने देख लिया, तो मैं बदनाम हो जाऊंगी।
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हमें अब घर लौटना चाहिए।’’ सविता उसकी बाहों में कसमसाती हुई बोली।
प्रेम ने उसे और भींच लिया और बोला,
‘‘सविता, आज भगवान ने हमें एक-दूसरे में समा जाने का आर्शीवाद दे दिया है…
आज तुम मुझे मत रोको जिस आग मंै जल रहा हूं।
उसी आग में तुम भी जल रही हो।
हम दोनांे ही एक-दूसरे की आग बुझायेंगे। वक्त का यही तकाजा है।’’
सविता ने प्रेम के बाहुपाश से निकलने की काफी चेष्टा की,
मगर वह खुद को उससे मुक्त नहीं कर सकी।
प्रेम ने जब उसके गदराये अंगो को मसलना शुरू किया,
तो धीरे-धीरे उसका प्रतिरोध समाप्त हो गया।
वह प्रेम के बाहों में झूल गई…
प्रेम की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उसने सविता को रेत पर गिरा लिया तथा उस पर छा गया…
”सविता जानेमन, तुम्हारे प्यार का टोना तो न जाने कब से मेरे ऊपर चढ़ा हुआ था।“
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वस्त्रा के ऊपर से ही सविता के कबूतरों को सहलाते हुए बोला प्रेम,
”आज ये टोना मैं तुम्हारी अंधेरी कोठरी में बैठकर प्रेम-तपस्या कर हमेशा के लिए हटा दूंगा।“
”प्रेम अब तो मैं भी तुम्हारे स्पर्श से पिघलने लगी हूं।“
वह प्रेम से लिपटती हुई बोली, ”तुमने मेरे अरमानों को हवा देकर ज्वालामुखी का रूप दे दिया है।
आज इस ज्वालामुखी में मैं राख हो जाना चाहती हूं।“
”तो फिर मुझे अब रोकना नहीं जानम।“
कहकर प्रेम, सविता के वस्त्रा उतारने लगा।
सविता ने भी कुछ न कहा।
वह केवल आंखें नीचीं करे हुए बस हांफ रही थी।
उसका दिल प्रेम का प्यार पाने के लिए जोरों से धड़क रहा था।
उसे एहसास था कि अब वह दोनांे क्या करने वाले हैं? और उसका कौन-सा अनमोल खजाना लुट जाने वाला है।
देखते हीे देखते प्रेम ने सविता को निर्वस्त्रा कर डाला।
मगर उसने अपने वस्त्रा पूरे नहीं उतारे, केवल ऊपर की शर्ट उतारी
और जीन्स को बस थोड़ा नीचे तक जांघों में सरका दिया। वह अपने नीचे लेटी सविता के अंगों का मर्दन करने लगा…
सविता भी वासना में डूबकर मादक सिसकियां लेने लगी…
”इससे पहले कोई आ जाये, तुम जल्दी से अपनी प्यास बुझा लो प्रेम।“
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फिर एकाएक मुस्करा कर बोली, ”वैसे सच कहूं तो मैं चाह रही हूं कि मेरी प्यास बुझा दो।“
फिर प्रेम, सविता की अंधेरी ‘कोठरी’ में उतर गया।
प्रेम जैसे ही सविता की ‘कोठरी’ में उतरा।
एकाएक सविता छटपटा उठी वह चीखना चाह रही थी,
मगर तभी प्रेम ने अपनी एक हथेली उसके मुंह पर रख दी और बोला,
”चीखो मत सविता।“ वह गतिमान होता रहा और बोला,
”मैं नहीं चाहता कि अब ये प्रोग्राम पूरा होने से पहले रूक जाये।“
उसने बुरी तरह से सविता का मंुह बंद कर रखा था।
सविता की बड़ी-बड़ी आंखें देखकर प्रेम समझ रहा था कि इस समय वह पीड़ा का अनुभव कर रही है।
मगर फिर भी उसने उसके मुंह से अपना हाथ नहीं हटाया।
दरअसल प्रेम जानता था कि कुछ पल के कष्ट के बाद सब सामान्य हो जायेगा
और सविता भी मजा लेते हुए चीखेगी नहीं।
बेचारी सविता घुटी-घुटी आवाज में ‘उम… अ..म..’ करती रह गई और प्रेम अपने कार्य में लगा रहा।
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फिर जब प्रेम ने देखा कि सविता की आंखें मस्ती व आनंद के अतिरेक में मुंदने लगी हैं,
तो उसने हौले से सविता के मुख से हाथ हटा दिया…
”कैसे प्रेमी हो तुम प्रेम।“ नाराजगी का अभिनय करती हुई बोली सविता,
”भला अपनी प्रेमिका से भी कोई ऐसा व्यवहा करता है।
जानती हो मेरी जान ही निकलने वाली थी,
जब तुमने प्यार का पहला वार किया मेरी देह में।“
”माफ कर देना मेरी जान।“
उसके गुलाबी होंठों को चूमते हुए बोला प्रेम,
”मगर मैं उस मेरा जोश इतने उत्कृर्ष पर था, कि मैं खुद को रोक नहीं पाया।
मुझे लगा तुम चीखोगी तो किसी के आ जाने से मैं अपने कार्य को पूरा नहीं कर पाऊंगा।“
”हू..म..“ थोड़ा मुस्करा कर बोली सविता, ”बड़े ही शैतान और मतलबी हो तुम।
अपनी कार्य सिद्धि के लिए मुझे कष्ट में डाल दिया।
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बस अपने काम की पूर्ति की पड़ी है बस।“
”हां पड़ी है बोलो।“
”पड़ी है, तो काम को रोक क्यों दिया बुद्धु बलम।“
सविता शरारतपूर्ण अंदाज में बोली, ”काम को जारी रखो।
रूकाटव के लिए खेद का बोर्ड क्यों लगा रखा है अपने ‘तख्ते’ पर।
फिर क्या था, प्रेम ने सविता को ऐसा प्यार का खेल खिलाया कि सविता चारों खाने चित्त हो गई।
लगभग आधे घंटे के बाद प्रेम, सविता रूपी कली का पराग चूसने में सफल रहा।
सविता को भी अद्भुत आनंद प्राप्त हुआ था।
मगर इस सुख से गुजरने के बाद उसे काफी दुख हुआ था।
वह कली से फूल बन गई चुकी थी।
प्रेम ने उसे लड़की से औरत बना दिया था।
एक बार उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध स्थापित हो जाने के बाद यह सिलसिला चल पड़ा।
सविता से बड़ा एक भाई था।
सविता के मां-बाप इस दुनियां में नहीं थे।
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भाई ने ही सविता को मां-बाप का प्यार दिया था।
उसका नाम अविनाश था वह नगरपालिका में नौकरी करता था।
आॅफिस के किसी काम से उसे शाम वाली ट्रेन से कोलकाता जाना था।
अविनाश ने सविता की देख-रेख के लिये पड़ोस की कमला आंटी को कहकर दोपहर में ही स्टेशन रवाना हो गया था।
उसके जाने के बाद सविता ने दरवाजा अंदर से बंद किया और अपने कमरे में जाकर लेट गई।
अभी कुछ ही देर हुआ था कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।
सविता ने उठकर दरवाजा खोल दिया सामने प्रेम खड़ा मुस्करा रहा था।
इससे पहले कि सविता कुछ कह पाती, पे्रम अंदर आ गया।
उसने अंदर से दरवाजा बंद कर दिया और सविता के मुखड़े को हथेलियों में भरकर उसके अधरों का रस निचोड़ने लगा।
सविता सिहर उठी। उसने अपनी देह को उसकी मजबूत बाहों में ढीला छोड़ दिया।
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फिर आंख मूंद कर, प्रेम द्वारा उसके उसके अंगों से खिलवाड़ का आनंद अनुभव करने लगी।
सविता सिसकारियां भरती जा रही थीं।
दोनों अभी बेकाबू होकर एक-दूसरे में समा जाने को तत्पर थे,
कि तभी दरवाजे पर ‘थाप’ की आवाज़ सुनाई दी।
सविता को ‘थाप’ की आवाज जानी-पहचानी लगी।
आगंतुक की कल्पना करके उसके होश उड़ गये।
वह चीख कर रोने लगी,
‘‘भईया! हम लुट गये….बरबाद हो गये। इस गुंडे ने मेरी इज्जत लूट ली।’’
जी हां, वह अविनाश ही था।
जिस ट्रेन से वह कोलकाता जाने वाला था,
उसके स्टेशन पर पहुंचने के दो मिनट पहले ही वह गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी।
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लिहाजा, वह सीधा घर लौट आया था।
बंद दरवाजे के पीछे से बहन की चीख-पुकार सुनते ही वह दरवाजा तोड़कर अंदर आ गया
और प्रेम पर लात-घूसों की बरसात करता हुआ उस पर टूट पड़ा।
वह उसे तब तक पीटता रहा, जब तक कि प्रेम के प्राण पखेरू उड़ नहीं गये।
फिर पुलिस आई और अविनाश को प्रेेम की हत्या करने के जुर्म में गिरफ्तार कर ले गई।
सविता ने हाथ जोड़ कर वकील साहब से इस केस को लड़ने का आग्रह किया।
साथ ही वह बोली, ‘‘वकील साहब….मेरे भइया की जमानत हो जानी चाहिए।
इसके एवज में मैं आपको कुछ भी देने के लिये तैयार हूं, जो आप मांगेगें।’’
एडवोकेट सिंह सिंह तन से भले ही बूढ़े हो गये थे, मगर मन अभी जवान ही था।
सविता से इस प्रकार का प्रस्ताव सुनकर उनकी आंखें चमक उठीं।
उन्होंने सविता से वादा किया कि उसके भइया को सजा नहीं होने दंेगे।
साथ ही उन्होंने आंखों ही आंखों में इशारा कर दिया,
‘‘शगुन चुकाने के लिये तैयार रहो। ठीक रात के दस बजे मिलना।’’
सविता ने मुस्करा कर सिंह का आॅफर कबूल कर लिया।
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वह वायदे के अनुसार ठीक समय पर सिंह सिंह से मिलने उसके बंगले पर पहुंच गई।
सिंह उसी की प्रतीक्षा कर रहा था।
उसने सविता को अपनी बाहों मंे भर लिया
तथा उसकी कमसिन जवानी को नांेचना शुरू कर दिया।
वकील साहब के मन की मुराद पूरी करने के तथा ‘शगुन’ चुकाने के बाद सविता कपड़े पहन कर वहां से जाने लगी,
तो उसका अंग-अंग कसक रहा था,
लेकिन भाई की जमानत कराने की खुशी में उसकी यह कुर्बानी कुछ भी तो नहीं थी।
कहानी लेखक की कल्पना मात्र पर आधारित है व इस कहानी का किसी भी मृत या जीवित व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है
अगर ऐसा होता है तो यह केवल संयोग मात्र होगा।